Tuesday, May 5, 2015

Poetry Collection-3 (कविता संग्रह-३)

अकाल-

मौत के दरवाजें से
झांकती एक ज़िन्दगी
तरस रही है
एक बूंद पानी के लिये
तड़प रही है
एक रोटी के लिये
सरकारी आंकड़ों में
उत्पादन बढ़ा है
गतवर्ष की तुलना में
निर्यात बढ़ा है
फिर भी पलामू का
केशवराम भूख से व्याकुल
मौत के दरवाज़े पर खड़ा है
तीन साल से
रबी‚ भदई और खरीफ
एक भी फसल नहीं हुई
तीन सौ एकड़ उपजाऊ ज़मीन
बंजर बन गई
फसल तो दूर
घास भी नहीं उग रही
आदिमानव की तरह
लोग जंगलों में भटकते हैं
पौधों की जड़ों को खोदते हैं
काटते – उखाड़ते हैं
कड़वाहट निकालने के लिये
पानी में उबालते हैं
फिर इसे चबाते हैं
पेट की आग बुझाने के लिये
बाज़ार में ‚ सरकारी गोदामों में
बहुत अनाज है
किन्तु ये
गरीब दाने दाने को मोहताज हैं।

-शंकर सिंह
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आंखों का क्या-

आँखों का क्या वो तो यूँ ही गाहेबगाहे भर
आती हैं।
सोने से पहले रोने से नींद मुझे बेहतर आती है।।
मेरी किस्मत से आँधी का ना जाने कैसा
नाता है।
तूफाँ को ले साथ बिचारी फिर फिर मेरे घर
आती है।।
मुसीबतों को मेरे घर का पता किसीने बता
दिया है।
तरह तरह का भेस बना वो अकसर मेरे घर आती
हैं।।
परेशानियों का भी मुझ पर आने का अंदाज़
अलग है।
ऊपर से सजधजकर अंदर पहन ज़िरहबख्तर आती हैं।।
उलझन को सुलझाने पर भी लौट दुबारा यूँ आती
हैं।
सावन के महिने में दुलहन ज्यूँ अपने पीहर आती
है।।
ग़म का मुझसे और 'ज्ञान' का ग़म से कुछ ऐसा
रिश्ता है।
ज्यूं परवाने के पंखों को जला शमा खुद मर
जाती है।।

– ज्ञानराज माणिकप्रभ
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अग्निपरीक्षा-

हर इंसान की जिंदगी में
इक वक्त आता है
जब वह अपने आप को
अकेला असहाय असमर्थ
और मुसीबतों से घिरा हुआ पाता है
अपने लगते हैं बेगाने
और बेगानों की तो बात ही क्या
जी करता है जार जार रोने को
खुद को आंसुओं में डुबोने को
नहीं मिलता कोई अपना
लगते हैं सब पराये
किस से हाल कहें अपना
हमदर्द भी होते हैं महसूस
दर्द देते हुए
रिश्तों की सच्चाई
दोस्तों की वफादारी
कसे जाते हुए
कसौटी पर वक्त की
भावनाओं की कसौटी पर
सारे भ्रम हो जाते हैं
छिन्न भिन्न
सारी खुशफहमियां
साबित होती हैं
गलतफहमियां
नहीं मिलती भावनाओं को
सहारे की भीख
मिलती है उनको
सीख
सिर्फ सीख
सवाल करते हुए चेहरे
कुछ मुखर कुछ मौन
किंतु जवाब देगा कौन
जवाब देगा जन्म
और सवालों को
अंतहीन सिलसिला
अनवरत……
कभी खत्म न होने वाली
काली अंधियारी रात
आशा की किरन को तरसता मन
चंदा की चांदनी
तारों की झिलमिल
राह दिखाने में असमर्थ नाकाम
क्योंकि आसमान में छाये हैं
काले बादल
घने स्याह बादल
हर कदम इक अनजाना सा डर
क्या पता अगला कदम
कहां ले जाये
हर फैसला गलत साबित होता हुआ
आत्मविश्वास चकनाचूर होता हुआ
विश्वास लड़खड़ाता हुआ
इस कदर
कि हर फैसले से लगता है डर
फिर भी इक उम्मीद
कि वह वक्त कभी तो आयेगा
जब सबको अपने सवालों का
जबाब मिल जायेगा
अशाएं भ्रम न साबित होंगी
वक्त की कसौटी पर कसे हुए
खरे रिश्ते सच्चे दोस्त
स्वार्थ की ढेरी से छांट कर
अलग किये हुए
भले ही गिनती में कम हों
मगर यह छोटा सा खजाना है अनमोल
जो काम आयेगा ताजिन्दगी
वक्त की ठोकरों से मिली हुई सीख
हर कदम मिली नसीहतें
यह भुला देने की बात नहीं
संभाल कर रखो इन्हें
अपने दामन से बांधकर
ये कदम दर कदम काम आयेंगी तुम्हारे
ये कड़वे और खट्टे अनुभव
तुम्हें सिखायेंगे
मजबूरी और ढोंग में
फर्क करना‚
फर्क करना
अच्छे बुरे में
फर्क करना
सही गलत में
फर्क करना
दोस्त और मतलबपरस्त में
जिन्दगी की सच्चाई
दुनिया की सच्चाई
इंसान की सच्चाई
होगी तुम्हारे सामने
हट रहा है
झूठी आशाओं का बादल
पैदा करो अपने आप में
हिम्मत और बल
सामना करने के लिये
उस तेज धूप का
तुम्हारी आंखें मुंदी जाती हैं
जिसकी चमक से
तन मन जलता है तुम्हारा
जिसकी गर्मी से
तुम्हारा रक्त
भाप बन उड़ता हुआ
लड़खड़ाते हुए तुम्हारे पैर
संभालो इन्हें
यह है तुम्हारी अग्निपरीक्षा का वक्त |

- रतिकान्त झा
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अंत की ओर-

ऐसे कैसे चली जाऊंगी
अपने अंत की ओर
खाली हाथ
ले जाऊंगी
तन की मिट्टी में
खुदा तुम्हारा नाम
ले जाऊंगी गंध ज़रा सी
लिपटी होगी जो हवाओं में
ले जाऊंगी झर चुके फूल की
पथराई कामना
ले जाऊंगी हरी घास की नोक पर टिकी
एक जल की बूंद
आंखों से अपनी
ले जाऊंगी उतना आकाश
उतनी धरती
रस बस चुकी थी देह में जितनी
ले जाऊंगी अंत की ओर प्रेम
ज़रा सी प्रार्थना
और नक्षत्रों में से
आवाज़ दूंगी
तुम्हारे मौन में|

-जया जादवानी
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