Sunday, April 26, 2015

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Thursday, April 2, 2015

Poetry Collection-2(कविता संग्रह-२)

किताबे-

किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से,
बड़ी हसरत से तकती हैं.
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं,
जो शामें इन की सोहबत में कटा करती थीं.
अब अक्सर .......
गुज़र जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पदों पर.
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें ....
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो क़दरें वो सुनाती थीं,
कि जिनके 'सेल' कभी मरते नहीं थे,
वो क़दरें अब नज़र आतीं नहीं घर में,
जो रिश्ते वो सुनाती थीं.
वह सारे उधड़े-उधड़े हैं,
कोई सफ़ा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है,
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं.
बिना पत्तों के सूखे ठूँठ लगते हैं वो सब
अल्फ़ाज़,
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते,
बहुत-सी इस्तलाहें हैं,
जो मिट्टी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं,
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला.
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ्हे पलटने का,
अब ऊँगली 'क्लिक' करने से बस इक,
झपकी गुज़रती है,
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर,
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है.
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे,
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर.
नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से,
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी.
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल,
और महके हुए रुक्क़े,
किताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते
बनते थे,
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !

-गुलजार
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एक दिवस की बात-

सुन री सखी एक दिवस की बात
दिनकर ने कहा शुभ प्रभात।
अरूण बदन मुदित मन प्रफुल्ल गात
सुन री सखी एक दिवस की बात।।
दिनकर का मन अकुलित था
पृथ्वी से प्रेम दान पाने को।
सब कुछ अपना उसे समर्पित कर
उस ही मे मिल जाने को।
षह इच्छा लेकर मन मे
आया था वह उस प्रभात।। सुन री...।।
धरा न दे पाई उत्तर तत्काल
ळाज्जा से हो गई लाल लाल।
सकुचा रही थी वह लजीली बाल
संकोच से था हृदय बेहाल।
कह न पाई वह अपनी कुछ बात।। सुन री... ।।
पृथ्वी का यह मौन भाव
दिनेश को लगा अपमान।
करने लगा धरा पर बार बार
क्रोध से भभक कर वह नादान।
अपने कठोर से कठोर आघात।। सुन री .. ।।
धरा बेचारी फिर भी रही मौन
सहती हुई प्रहार पर प्रहार।
कष्ट से अकुलाती तन झुलसाती
पीड़ित नयनो से रही निहार।
न किया उसने कोई भी प्रतिघात।। सुन री.. ।।
कब तक चलता यह उ ंड कार्य क्रूर
थक कर हुआ सूर्य अब चूर चूर।
लगा चुका था शक्ति वह भर पूर
पर फिर भी न पाया उसने पृथ्वी को दूर।
तब हुई उसे अपनी भूल ज्ञात।। सुन री ..।।
आया उतर उच्च आसन से पृथ्वी के पास
लज्जित मुख कम्पित बदन मन उदास।
छिपा लिया पृथ्वी ने निज आंचल मे
दूर हुई थकान क्षण भर मे।
मुंदे नयन हुआ शीत गात।। सुन री.. ।।
सूर्य धरा का मधुर मिलन
देख सन्ध्या भी मुस्काई।
छिटकाये तारे फैलाई चांदनी
और मधुर समीर बहाई।
अहा कैसी सुन्दर यह रात।। सुन री...!

- आर्य भूषण
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आंखों का क्या-

आँखों का क्या वो तो यूँ ही
गाहेबगाहे भर आती हैं।
सोने से पहले रोने से नींद मुझे बेहतर
आती है।।
मेरी किस्मत से आँधी का ना जाने
कैसा नाता है।
तूफाँ को ले साथ बिचारी फिर फिर मेरे
घर आती है।।
मुसीबतों को मेरे घर का पता किसीने
बता दिया है।
तरह तरह का भेस बना वो अकसर मेरे घर
आती हैं।।
परेशानियों का भी मुझ पर आने का
अंदाज़ अलग है।
ऊपर से सजधजकर अंदर पहन ज़िरहबख्तर आती
हैं।।
उलझन को सुलझाने पर भी लौट दुबारा यूँ
आती हैं।
सावन के महिने में दुलहन ज्यूँ अपने
पीहर आती है।।
ग़म का मुझसे और 'ज्ञान' का ग़म से कुछ
ऐसा रिश्ता है।
ज्यूं परवाने के पंखों को जला शमा खुद
मर जाती है।।

– ज्ञानराज माणिकप्रभु 
__________________________________

बहारों से न तुम पूछो-

बहारों से न तुम पूछो पता मेंरे नशेमन
का।
नहीं शायद पता उनको पता इस चाकेदामन
का।।
मिटा खुदको, लुटा खुशबू, खड़ा हूँ मैं
अकेला यूँ।
बबूलों के बियाबाँ में हो जैसे पेड़
चंदन का।।
यहाँ तक ज़िंदगी गुज़री, मगर कुछ इस तरह
गुज़री।
बिना बरसात के गुज़रा हो जैसे माह सावन
का।।
चुराया होंठ से मेंरे तबस्सुम वक्.त ने
ऐसे।
चुरा ले चोर कंगन ज्यूँ किसी मासूम
दुलहन का।।
सियाही ने ग़मों की हैं मिटाए रंग
खुशियों के।
कि जैसे हाथ की मेंहदी मिटाए झाग
साबुन का।।
तेरे भीतर सुलगती है उदासी और
खामोशी।
मगर ऐ ‘ज्ञान’ बाहर क्यों मचाता शोर
फागुन का।।

– ज्ञानराज माणिकप्रभ

How To Write Blue Clickable Text In Facebook Status & Comment.

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@@[0:[136269139737589:1: Your Text Here]] or @[136269139737589:]

*. Its a no say that you've to replace the "your text
here" with whatever you want to be displayed.
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_________________________________
Blank comment-

@[0:]

Wednesday, April 1, 2015

Facebook trick

Fb magic code..

"Copy" the code and "past' in facebook comment and status box.

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Poetry collection(कविता संग्रह)

साजन! होली आई है -

साजन! होली आई है!
सुख से हँसना
जी भर गाना
मस्ती से मन को बहलाना
पर्व हो गया आज-
साजन ! होली आई है!
हँसाने हमको आई है!
साजन! होली आई है!
इसी बहाने
क्षण भर गा लें
दुखमय जीवन को बहला लें
ले मस्ती की आग-
साजन! होली आई है!
जलाने जग को आई है!
साजन! होली आई है!
रंग उड़ाती
मधु बरसाती
कण-कण में यौवन बिखराती,
ऋतु वसंत का राज-
लेकर होली आई है!
जिलाने हमको आई है!
साजन ! होली आई है!
खूनी और बर्बर
लड़कर-मरकर-
मधकर नर-शोणित का सागर
पा न सका है आज-
सुधा वह हमने पाई है !
साजन! होली आई है!
साजन ! होली आई है !
यौवन की जय !
जीवन की लय!
गूँज रहा है मोहक मधुमय
उड़ते रंग-गुलाल
मस्ती जग में छाई है
साजन! होली आई है!

-फणीश्वर नाथ 'रेणु'
_________________________________

एक भी आँसू न कर बेकार -

जाने कब समंदर मांगने आ जाए!
पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है,
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है,
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है,
कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाए!
चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं,
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ-
पर समस्याएं कभी रूठी नहीं हैं,
हर छलकते अश्रु को कर प्यार
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाए!
व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की,
काम अपने पाँव ही आते सफर में,
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा-
जो स्वयं गिर जाए अपनी ही नज़र में,
हर लहर का कर प्रणय स्वीकार-
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!

- रामावतार त्यागी
____________________________________

ऋतु फागुन नियरानी हो-

ऋतु फागुन नियरानी हो,
कोई पिया से मिलावे ।
सोई सुदंर जाकों पिया को ध्यान है,
सोई पिया की मनमानी,
खेलत फाग अगं नहिं मोड़े,
सतगुरु से लिपटानी ।
इक इक सखियाँ खेल घर पहुँची,
इक इक कुल अरुझानी ।
इक इक नाम बिना बहकानी,
हो रही ऐंचातानी ।।
पिय को रूप कहाँ लगि बरनौं,
रूपहि माहिं समानी ।
जौ रँगे रँगे सकल छवि छाके,
तन- मन सबहि भुलानी।
यों मत जाने यहि रे फाग है,
यह कछु अकथ- कहानी ।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो,
यह गति विरलै जानी ।।

- कबीर
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मुक्तिबोध की कविता-

मैं बना उन्माद री सखि, तू तरल अवसाद
प्रेम - पारावार पीड़ा, तू सुनहली याद
तैल तू तो दीप मै हूँ, सजग मेरे प्राण।
रजनि में जीवन-चिता औ' प्रात मे निर्वाण
शुष्क तिनका तू बनी तो पास ही मैं धूल
आम्र में यदि कोकिला तो पास ही मैं हूल
फल-सा यदि मैं बनूं तो शूल-सी तू पास
विँधुर जीवन के शयन को तू मधुर आवास
सजल मेरे प्राण है री, सजग मेरे प्राण
तू बनी प्राण! मै तो आलि चिर-म्रियमाण।

-मुक्तिबोध
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मैं दिल्ली हूँ |-

क्यों नाम पड़ा मेरा 'दिल्ली', यह तो कुछ याद न आता है।
पर बचपन से ही दिल्ली, कहकर मझे पुकारा जाता है॥
इसलिए कि शायद भारत भारत जैसे महादेश का दिल हूँ मैं।
धर्मों की रीति रिवाज़ों की, भाषाओं की महफ़िल हूँ मैं॥
बारहवीं सदी की याद कभी, जब भी मुझको आ जाती है।
मीठी सी एक चुभन बनकर, सपना जैसा छा जाती है॥
वह समय कि जब चौहानों के, यश वैभव का कुछ अंत न था।
वह राजा पृथ्वीराज प्रतापी, साधारण सामन्त न
था॥
भारत की धरती पर तब उस जैसा था कोई धीर नहीं।
उस जैसा कोई शब्द-भेदने, वाला देखा वीर नहीं॥
हर ओर उसी का हल्ला था, घर-घर उसकी चर्चाएँ थीं।
महलों में या चौपालों में, उसकी ही सिर्फ कथाएँ थीं॥
संयुक्ता जैसी रुपवती, उसकी मनचाही रानी थी।
जिसकी सुन्दरता देख स्वयं, सुन्दरता को हैरानी थी॥
कवि चन्द्र कि जिसकी कविता से, सारा ही देश
महकता था।
जिसके शब्दों में बिजली थी, स्वर में अंगार दहकता था॥
वह आदि महाकवि हिन्दी का, वह वीर शिरोमणि
बलिदानी।
वह पृथ्वीराज का मित्र, राजकवि; मेरो आँखों का
पानी।।
उसने 'रासो' को रच करके, मेरा सम्मान बढ़ाया था।
उसने वीरों को साहस का, गौरव का; पाठ पढ़ाया था।।
वह राजा पूथ्वीराज नहीं, मेरी आँखों का तारा था।
हाँ; सोलह बार मुहम्मद गौरी, उसके हाथों हारा था।।
मेरी रक्षा की थी, मेरे ही; बेटों की तलवारों ने।
मेरी लाज रखी थी मेरे, अपने राजकुमारों ने।।
सोलह बार मुहम्मद गौरी, पीठ दिखाकर भागा था।
लेकिन मेरी किस्मत में तो, शायद अंधियारा जागा था।।
दुर्दिन के आते ही भाई-भाई में ऐसी फूट पड़ी।
बदनाम गुलामी की बिजली, मेरे आँगन में टूट पड़ी।।
गौरी की सेना के आगे, मेरा राजा भी हार गया।
किस्मत का तारा डूब गया, मेरा सारा श्रृंगार गया।।
मरघट का हाहाकार मुझे, हर ओर सुनाई देता था।
मेरी गलियों में देता था, बस खून दिखाई देता था।।

- रामावतार त्यागी