किताबे-
किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से,
बड़ी हसरत से तकती हैं.
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं,
जो शामें इन की सोहबत में कटा करती थीं.
अब अक्सर .......
गुज़र जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पदों पर.
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें ....
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो क़दरें वो सुनाती थीं,
कि जिनके 'सेल' कभी मरते नहीं थे,
वो क़दरें अब नज़र आतीं नहीं घर में,
जो रिश्ते वो सुनाती थीं.
वह सारे उधड़े-उधड़े हैं,
कोई सफ़ा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है,
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं.
बिना पत्तों के सूखे ठूँठ लगते हैं वो सब
अल्फ़ाज़,
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते,
बहुत-सी इस्तलाहें हैं,
जो मिट्टी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं,
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला.
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ्हे पलटने का,
अब ऊँगली 'क्लिक' करने से बस इक,
झपकी गुज़रती है,
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर,
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है.
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे,
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर.
नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से,
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी.
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल,
और महके हुए रुक्क़े,
किताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते
बनते थे,
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !
-गुलजार
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एक दिवस की बात-
सुन री सखी एक दिवस की बात
दिनकर ने कहा शुभ प्रभात।
अरूण बदन मुदित मन प्रफुल्ल गात
सुन री सखी एक दिवस की बात।।
दिनकर का मन अकुलित था
पृथ्वी से प्रेम दान पाने को।
सब कुछ अपना उसे समर्पित कर
उस ही मे मिल जाने को।
षह इच्छा लेकर मन मे
आया था वह उस प्रभात।। सुन री...।।
धरा न दे पाई उत्तर तत्काल
ळाज्जा से हो गई लाल लाल।
सकुचा रही थी वह लजीली बाल
संकोच से था हृदय बेहाल।
कह न पाई वह अपनी कुछ बात।। सुन री... ।।
पृथ्वी का यह मौन भाव
दिनेश को लगा अपमान।
करने लगा धरा पर बार बार
क्रोध से भभक कर वह नादान।
अपने कठोर से कठोर आघात।। सुन री .. ।।
धरा बेचारी फिर भी रही मौन
सहती हुई प्रहार पर प्रहार।
कष्ट से अकुलाती तन झुलसाती
पीड़ित नयनो से रही निहार।
न किया उसने कोई भी प्रतिघात।। सुन री.. ।।
कब तक चलता यह उ ंड कार्य क्रूर
थक कर हुआ सूर्य अब चूर चूर।
लगा चुका था शक्ति वह भर पूर
पर फिर भी न पाया उसने पृथ्वी को दूर।
तब हुई उसे अपनी भूल ज्ञात।। सुन री ..।।
आया उतर उच्च आसन से पृथ्वी के पास
लज्जित मुख कम्पित बदन मन उदास।
छिपा लिया पृथ्वी ने निज आंचल मे
दूर हुई थकान क्षण भर मे।
मुंदे नयन हुआ शीत गात।। सुन री.. ।।
सूर्य धरा का मधुर मिलन
देख सन्ध्या भी मुस्काई।
छिटकाये तारे फैलाई चांदनी
और मधुर समीर बहाई।
अहा कैसी सुन्दर यह रात।। सुन री...!
- आर्य भूषण
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आंखों का क्या-
आँखों का क्या वो तो यूँ ही
गाहेबगाहे भर आती हैं।
सोने से पहले रोने से नींद मुझे बेहतर
आती है।।
मेरी किस्मत से आँधी का ना जाने
कैसा नाता है।
तूफाँ को ले साथ बिचारी फिर फिर मेरे
घर आती है।।
मुसीबतों को मेरे घर का पता किसीने
बता दिया है।
तरह तरह का भेस बना वो अकसर मेरे घर
आती हैं।।
परेशानियों का भी मुझ पर आने का
अंदाज़ अलग है।
ऊपर से सजधजकर अंदर पहन ज़िरहबख्तर आती
हैं।।
उलझन को सुलझाने पर भी लौट दुबारा यूँ
आती हैं।
सावन के महिने में दुलहन ज्यूँ अपने
पीहर आती है।।
ग़म का मुझसे और 'ज्ञान' का ग़म से कुछ
ऐसा रिश्ता है।
ज्यूं परवाने के पंखों को जला शमा खुद
मर जाती है।।
– ज्ञानराज माणिकप्रभु
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बहारों से न तुम पूछो-
बहारों से न तुम पूछो पता मेंरे नशेमन
का।
नहीं शायद पता उनको पता इस चाकेदामन
का।।
मिटा खुदको, लुटा खुशबू, खड़ा हूँ मैं
अकेला यूँ।
बबूलों के बियाबाँ में हो जैसे पेड़
चंदन का।।
यहाँ तक ज़िंदगी गुज़री, मगर कुछ इस तरह
गुज़री।
बिना बरसात के गुज़रा हो जैसे माह सावन
का।।
चुराया होंठ से मेंरे तबस्सुम वक्.त ने
ऐसे।
चुरा ले चोर कंगन ज्यूँ किसी मासूम
दुलहन का।।
सियाही ने ग़मों की हैं मिटाए रंग
खुशियों के।
कि जैसे हाथ की मेंहदी मिटाए झाग
साबुन का।।
तेरे भीतर सुलगती है उदासी और
खामोशी।
मगर ऐ ‘ज्ञान’ बाहर क्यों मचाता शोर
फागुन का।।
– ज्ञानराज माणिकप्रभ
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