साजन! होली आई है -
साजन! होली आई है!
सुख से हँसना
जी भर गाना
मस्ती से मन को बहलाना
पर्व हो गया आज-
साजन ! होली आई है!
हँसाने हमको आई है!
साजन! होली आई है!
इसी बहाने
क्षण भर गा लें
दुखमय जीवन को बहला लें
ले मस्ती की आग-
साजन! होली आई है!
जलाने जग को आई है!
साजन! होली आई है!
रंग उड़ाती
मधु बरसाती
कण-कण में यौवन बिखराती,
ऋतु वसंत का राज-
लेकर होली आई है!
जिलाने हमको आई है!
साजन ! होली आई है!
खूनी और बर्बर
लड़कर-मरकर-
मधकर नर-शोणित का सागर
पा न सका है आज-
सुधा वह हमने पाई है !
साजन! होली आई है!
साजन ! होली आई है !
यौवन की जय !
जीवन की लय!
गूँज रहा है मोहक मधुमय
उड़ते रंग-गुलाल
मस्ती जग में छाई है
साजन! होली आई है!
-फणीश्वर नाथ 'रेणु'
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एक भी आँसू न कर बेकार -
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!
पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है,
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है,
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है,
कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाए!
चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं,
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ-
पर समस्याएं कभी रूठी नहीं हैं,
हर छलकते अश्रु को कर प्यार
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाए!
व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की,
काम अपने पाँव ही आते सफर में,
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा-
जो स्वयं गिर जाए अपनी ही नज़र में,
हर लहर का कर प्रणय स्वीकार-
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!
- रामावतार त्यागी
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ऋतु फागुन नियरानी हो-
ऋतु फागुन नियरानी हो,
कोई पिया से मिलावे ।
सोई सुदंर जाकों पिया को ध्यान है,
सोई पिया की मनमानी,
खेलत फाग अगं नहिं मोड़े,
सतगुरु से लिपटानी ।
इक इक सखियाँ खेल घर पहुँची,
इक इक कुल अरुझानी ।
इक इक नाम बिना बहकानी,
हो रही ऐंचातानी ।।
पिय को रूप कहाँ लगि बरनौं,
रूपहि माहिं समानी ।
जौ रँगे रँगे सकल छवि छाके,
तन- मन सबहि भुलानी।
यों मत जाने यहि रे फाग है,
यह कछु अकथ- कहानी ।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो,
यह गति विरलै जानी ।।
- कबीर
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मुक्तिबोध की कविता-
मैं बना उन्माद री सखि, तू तरल अवसाद
प्रेम - पारावार पीड़ा, तू सुनहली याद
तैल तू तो दीप मै हूँ, सजग मेरे प्राण।
रजनि में जीवन-चिता औ' प्रात मे निर्वाण
शुष्क तिनका तू बनी तो पास ही मैं धूल
आम्र में यदि कोकिला तो पास ही मैं हूल
फल-सा यदि मैं बनूं तो शूल-सी तू पास
विँधुर जीवन के शयन को तू मधुर आवास
सजल मेरे प्राण है री, सजग मेरे प्राण
तू बनी प्राण! मै तो आलि चिर-म्रियमाण।
-मुक्तिबोध
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मैं दिल्ली हूँ |-
क्यों नाम पड़ा मेरा 'दिल्ली', यह तो कुछ याद न आता है।
पर बचपन से ही दिल्ली, कहकर मझे पुकारा जाता है॥
इसलिए कि शायद भारत भारत जैसे महादेश का दिल हूँ मैं।
धर्मों की रीति रिवाज़ों की, भाषाओं की महफ़िल हूँ मैं॥
बारहवीं सदी की याद कभी, जब भी मुझको आ जाती है।
मीठी सी एक चुभन बनकर, सपना जैसा छा जाती है॥
वह समय कि जब चौहानों के, यश वैभव का कुछ अंत न था।
वह राजा पृथ्वीराज प्रतापी, साधारण सामन्त न
था॥
भारत की धरती पर तब उस जैसा था कोई धीर नहीं।
उस जैसा कोई शब्द-भेदने, वाला देखा वीर नहीं॥
हर ओर उसी का हल्ला था, घर-घर उसकी चर्चाएँ थीं।
महलों में या चौपालों में, उसकी ही सिर्फ कथाएँ थीं॥
संयुक्ता जैसी रुपवती, उसकी मनचाही रानी थी।
जिसकी सुन्दरता देख स्वयं, सुन्दरता को हैरानी थी॥
कवि चन्द्र कि जिसकी कविता से, सारा ही देश
महकता था।
जिसके शब्दों में बिजली थी, स्वर में अंगार दहकता था॥
वह आदि महाकवि हिन्दी का, वह वीर शिरोमणि
बलिदानी।
वह पृथ्वीराज का मित्र, राजकवि; मेरो आँखों का
पानी।।
उसने 'रासो' को रच करके, मेरा सम्मान बढ़ाया था।
उसने वीरों को साहस का, गौरव का; पाठ पढ़ाया था।।
वह राजा पूथ्वीराज नहीं, मेरी आँखों का तारा था।
हाँ; सोलह बार मुहम्मद गौरी, उसके हाथों हारा था।।
मेरी रक्षा की थी, मेरे ही; बेटों की तलवारों ने।
मेरी लाज रखी थी मेरे, अपने राजकुमारों ने।।
सोलह बार मुहम्मद गौरी, पीठ दिखाकर भागा था।
लेकिन मेरी किस्मत में तो, शायद अंधियारा जागा था।।
दुर्दिन के आते ही भाई-भाई में ऐसी फूट पड़ी।
बदनाम गुलामी की बिजली, मेरे आँगन में टूट पड़ी।।
गौरी की सेना के आगे, मेरा राजा भी हार गया।
किस्मत का तारा डूब गया, मेरा सारा श्रृंगार गया।।
मरघट का हाहाकार मुझे, हर ओर सुनाई देता था।
मेरी गलियों में देता था, बस खून दिखाई देता था।।
- रामावतार त्यागी
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